
आप इस पोस्ट का शीर्षक देख कर अवश्य ही चौंक गये होंगे.
बुद्धू हमारे कछुए का नाम है.अब आप कहेंगे ये क्या नाम हुआ भला?इसके मिलने की कहानी भी दिलचस्प है. ५ साल पहले, हम लोग कार के द्वारा उदयपुर से जयपुर जा रहे थे.सितम्बर का महीना था, थोडी थोडी बारिश से मौसम खुशगवार हो गया था. सडक के दोनों ओर हरियाली देख कर चित्त प्रसन्न हो रहा था, शुभा मुदगल का टेप चल रहा था. अचानक पतिदेव ने ब्रेक लगाया और गाडी रोक दी,बोले"देखो सडक के बीचोंबीच कितना सुन्दर पत्थर पडा हुआ है".हम सभी गाडी से उतर कर पास गये तो देखा एक कछुआ घायलवस्था में पडा था.उसकी एक टांग से खून बह रहा था और वो निस्तेज पडा था.हमें पास आते देख उसने अपना सिर और बाकी के तीन पैर अपने खोल में समेट लिये किन्तु घायल पैर बाहर ही रहा.अब हम असमंजस की स्थिति में थे.सारा परिवार पशु प्रेमी है, अत: उसे वहां बेसहारा छोडने का तो सवाल ही नहीं उठता था.शाम ढलने में कुछ ही देर थी, मैने तुरन्त अपना फ़र्स्ट-एड किट निकाला और कछुए की घायल टांग की मरहम -पट्टी कर डाली.अब सवाल उठा इसे अकेला कैसे छोडा जाये, पुपुल की तो आंखों में आंसू छलक आये. मैने पतिदेव की ओर देखा तो उन्होंने मौन स्वीकृति दे दी. हमने उसे उठाया ओर गाडी में सीट के नीचे अखबार बिछा कर विराजमान कर दिया.रास्ते में ही नाम तय हो गया, कि क्यूंकि ये हमें बुधवार को मिला है, इसे हम बुद्धू कह कर बुलायेंगे. इस प्रकार बुद्धू हमारे घर के सदस्य के रूप में शामिल हो गये.दिल्ली पंहुचते ही सबसे पहले वैली (हमारी लैब्रैडोर) ने उसका सूघ-सूंघ कर निरीक्षण किया और बडप्पन दिखाते हुए स्वीकार कर लिया.घर आकर तय किया गया कि जैसे ही ये ठीक हो जाएगा, इसे कहीं जंगल में छोड आयेंगे. बुद्धू ५-७ दिन में ठीक भी हो गया, किन्तु आज तक हम उससे अलग होने की कल्पना से भी विचलित हो जाते हैं.
अब बुद्धू की दिनचर्या सेट करने का भार मुझ पर आ गया. खाने को उसे हम लौकी,कद्दू, खीरा आदि देने लगे.समस्या थी उसके शौच और मूत्र के समय संचालन की.तो मैने इसका हल निकाला.रोज़ाना सुबह ९ बजे मैं उसे पानी के टब में छोडने लगी. २०-२५ मिनट में वो सू-सू और पौटी से फ़्री होने लगा. एक महीने में ही वो इतना समझदार हो गया कि टब से निकलते ही वो सीधा रसोई की ओर बढने लगा क्योंकि वहां उसे भोजन मिलने वाला था.पेट भर खाने के बाद वो रसोई से बाहर आकर पूरे घर का भ्रमण करने लगा.अब उसका रुटीन इतना सेट हो गया है कि अगर हम भूल जायें तो भी वो ९ बजे बाथरूम के पास आकर खडा हो जाता है.दिन के चार बजे उसे जैसे ही रसोई में किसी के आने की आहट होती है, वो रसोई में चला आता है और मेरे या महरी के अंगूठे पर अपना सर मार कर खाना मांगता है.अपना एक हाथ उठा कर हवा में हिला कर , अपना सिर और गर्दन बाहर निकाल कर कलाबाज़ियां दिखाता है.
दिन में वो वैली के पेट से चिपक कर घंटों गु्ज़ार देता है.उन दोनों में इतनी गहरी दोस्ती हो गई है कि वैली को उसकी छेड-छाड से कोई गुरेज़ नही है.वो कभी वैली की पूंछ पर चढता है, कभी उसकी नाक से अपनी नाक अडा देता है.दोनों में एक अनकही अन्डरस्टैन्डिंग हो गई है. उसे ना वैली का खौफ़ है ना हमारा.हां ,आगन्तुकों की आहट मात्र से खोल में सिकुड जाता है.शाम होते ही घर का कोई भी कोना पकड कर वहां छिप जाता है.सर्दियों के मौसम में ना वो खोल से बाहर आता है, ना ही कुछ खाता है.कभी कभी धूप में मैं उसे बालकनी में रख देती हूं तो कुछ एक पत्ते, या खीरे का छोटा सा टुकडा खा लेता है.सारी सर्दियां मैं उसे एक ऊनी टोपी में लपेट कर एक केन की टोकरी में सहेज कर रखती हूं. वसन्त के आगमन के साथ ही उसका भ्रमण शुरु हो जाता है.बरसातों में उसकी गति और चपलता, साथ ही भूख भी बढ जाती है.दिन में ५-६ बार रसोई में आकर खाने की मांग करता है.खास तौर से बरसातों में वो पूरे दिन मेरे पीछे पीछे चक्कर काटता है. ऊपर वाले चित्र में वो अपना वज़न ले रहा है, आखिर फ़िट्नेस का ज़माना है.बाबा रामदेव के बताये रास्ते पर चल कर पूर्ण शाकाहारी भोजन करता है और बहुत ही धीमे धीमे सांस लेता है, यही है उसकी सेहत और लम्बी उम्र का राज़.
कैसा लगा आपको हमारा बुद्धू?