Tuesday, April 29, 2008
जब कैरी पहली बार beach पर गया
कैरी को आए कुछ ही दिन हुए थे पर जब से कैरी आया था हम लोगों का घूमना-फिरना बंद हो गया था क्यूंकि कैरी को हर जगह लेकर जा नही सकते थे और घर मे उसे अकेले छोड़ नही सकते थे। एक बार कैरी अकेले घर मे छोड़ कर हम लोग डिनर करने बाहर चले गए थे तो कैरी कमरे की खिड़की से निकल कर बाहर टैरस पर चला गया था और खूब जोर-जोर से भौंक रहा था।और जैसे ही हम लोग गाड़ी से आए की एक पड़ोसी ने हम लोगों को बताया की आपका doggi बहुत देर से भौक रहा था । उसे अकेले ऐसे छोड़ कर नही जाना चाहिए। बाद मे पता चला की उन पड़ोसी के पास भी doggi है।
खैर तो ऐसे ही एक सन्डे को हम लोगों ने calangute beach जाने का कार्यक्रम बनाया। और ये तय किया की अबकी कैरी को भी लेकर जायेंगे जिससे उसकी घूमने और गाड़ी मे बैठने की भी आदत पड़ जाए। पर पहली बार बाहर लेकर जाने मे हम लोगों को भी डर लग रहा था कि पता नही वो कैसे बिहेव करेगा। जैसे ही कार चली की कैरी महाशय थोडी देर तो चुप रहे और उसके बाद भौंकना शुरू कर दिया।कैरी थोडी देर चुप रहता और फ़िर कूं-कूं करने लगता। खैर २० मिनट मे beach पर पहुंचे तो वहां लोगों को देख कर कैरी राम घबडा ही गए। और जब कैरी को पानी के पास ले गए तो वो पीछे की तरफ़ भागने लगा। खैर हम सब ने उसे थोडी देर पानी के पास बिठाया और फ़िर कैरी का डर थोड़ा कम हुआ ।
beach पर कुछ लोग तो कैरी को देख कर डर जाते तो वहीं जिन्होंने doggi पाले हुए थे वो कैरी को प्यार करने लगते थे।थोडी देर बाद कैरी को भी मजा आने लगा था। और beach से वापिस लौटने मे कैरी राम इतना थक गए थे कि वो बेटे के पैर पर ही सो गए।
Wednesday, April 23, 2008
रंग बिरंगी मछलियाँ (२)
इन मछलियों को भी जैसे हम लोगों की आवाज और खुशबू पता चल जाती थी। क्यूंकि जब हम लोग pond के पास जाते थे तो अक्सर ये लोग पानी मे नीचे की तरफ़ रहती थी या pond मे पड़े पौधों मे छिपी रहती थी। पर बुलाने पर बाहर आ जाती थी।और पूरे समय इधर-उधर तैरती रहती थी। pond मे देखने पर लगता था की थोडी बड़ी हो रही है।और इन्हे इस तरह तैरता हुआ देखने मे बहुत अच्छा लगता था। अगर एक मछली भी कम दिखती तो लगता था की कहीं मछली मर ना गई हो । इसलिए अक्सर हम लोग इनकी गिनती करते रहते थे।
ये दोनों विडियो जरा बड़े है।
Monday, April 21, 2008
मेरे पक्षी मित्र
ईश्वर का कुछ ऐसा आशीर्वाद है मुझ पर और मेरे परिवार पर कि पशु-पक्षी हमारे पास आने से नहीं झिझकते.मुझे और मेरी बेटी पुपुल को हर जगह के पशु-पक्षियों में अनूठापन नज़र आ ही जाता है.जिस भी बाज़ार में या गली में हम खरीदारी करने निकलते हैं वहां के सब कुत्ते मेरी बेटी के पीछे पीछे चलने लगते हैं.उसके घुटनों तक चढ कर अठखेलियां करते हैं.अनायास ही पाइड्पाइपर की कहानी दोहराई जाने लगती है,फ़र्क सिर्फ़ इतना ही होता है कि पाइड्पाइपर की कहानी में चूहे होते थे और पुपुल की कहानी में कुत्ते होते हैं. वो बचपन से ही बिना किसी भय के बकरी के छोनों,कुत्ते के पिल्लों, गाय के बछडों को सहलाती,गुदगुदाती रही है. किसी को बिस्किट, किसी को दूध, किसी को पनीर खिला कर बहुत खुश होती है.हां, पक्षियों से उसे इतना लगाव नहीं जितना जानवरों से है.
एक बार हम शिमला में माल रोड पर टहल रहे थे, तभी उसने वहां एक मम्मी कौकर-स्पैनियल और उसके पिल्लों से मित्रता स्थापित कर ली.वो उनके साथ ऐसे रम गई जैसे वो सभी कुत्ते उसी के हों.प्यारे-प्यारे पपी, उस से चिपक गये, मम्मी को कोई ओब्जेक्शन ही नही था.यह दृष्य काफ़ी लोगों के कौतूहल का विषय बन गया.बात जब नये मित्रों से जुदा होने की आयी तो पुपुल ने रो रो कर वो हाल किया कि हमारे भरी सर्दी में पसीने छूट गये.
मुझे पक्षी बहुत पसन्द हैं.मेरी सोसायटी में कोई भी कबूतर या तोता यदि घायल अवस्था में पाया जाता है तो उसे उपचार के लिये मेरे पास ही लाया जाता है.यूं तो हमारे घर पर मछलियां, जमीन वाला कछुआ,एक लैब्रैडोर हमारे साथ रहते हैं.फ़िर भी मुझे मेरी लव-बर्ड्स और तोते मुझे बहुत याद आते हैं.ईश्वर की इच्छा से सभी मुझसे जुदा हो गये.दो-दो पिन्जरे खाली पडे हैं.जब भी कभी मौका मिलेगा, ले आउंगी.अभी बात करते हैं मेरे काक मित्रों की.पिछली गर्मियों में मैने अपनी एक बालकनी में पक्षियों के लिये पानी की व्यवस्था कर दी थी.प्यासे कबूतर,और कितनी ही तरह की चिडियां, वहां आकर अपनी प्यास बुझा कर, शोर मचा कर उड जाते थे.थोडे दिनों के बाद मैने नोटिस किया कि दोपहर के ढाई-तीन बजे रोज़ाना वहां एक कौआ आता है औत पानी पीकर उड जाता है.क्युंकि ये बालकनी मेरे बेडरूम से लगी हुई है, मेरा इन मेहमानों से अच्छा समय बीतने लगा.मैने वहां रोटी और चावल के दाने भी डालने शुरु कर दिये. अब तो पक्षियों के दल तय हो गये अलग अलग वक्त पर. सबसे पहले ११-१२ बजे के बीच कबूतर आ जाते थे,फ़िर नंबर आता काले रंग की पीली चोंच वाली चिडियों का.उनके फ़ुर्र होते ही स्पैरोज़ के जोडे चले आते.अन्त में बारी आती मेरे काक मित्रों की.जब मौसम का मिज़ाज़ ठन्डा होने लगा तो मैने वहां पानी रखना बंद कर दिया किन्तु खाना डालती रही.ना जाने क्यूं मेरे मेहमानों ने आना बंद कर दिया.इस वर्ष जैसे ही ग्रीष्म का आगमन हुआ,मेरे पिछले वर्ष के बिछडे साथी फ़िर से मुझसे आ मिले.अब उनके आने जाने का वही सिलसिला फ़िर से कायम हो गया है.इस साल एक नयी बात देखी.यदि किसी कारण-वश मै खाना पानी दिन के एक बजे तक डालना भूल जाऊं, तो एक बडा सा कौआ चीख चीख कर मुझे याद दिला देता है.जाने वो इतना निडर है, या उसे मेरी दोस्ती इतनी भा गई है कि जब मैं बालकनी में खाना पानी रखने जाती हूं तो वो एक इन्च भी टस से मस नहीं होता. ना ही वो वैली ( हमारी पालतू श्वान) से डरता है.वो बडी शान से रोटी का टुकडा खा कर पानी पीकर, अपने बाकी के मित्रों को आवाज़ लगाता है और उड जाता है. उसके जाने के पश्चात ही बाकी के कौए बालकनी में आकर लंच करते हैं.इतना धैर्य और अनुशासन तो इन्सानों में भी देखने को नहीं मिलता.
दिल्ली जैसे महानगर में मेरे पक्षी मित्रों की रौनक मेरे आशियाने को गुंजायमान रखती है.मुझ जैसी प्रकृति प्रेमी को और क्या चाहिये भला?
Tuesday, April 15, 2008
रंग-बिरंगी मछलियाँ (१)
खैर जंगली घाट मे एक दूकान थी वहां से हम लोग करीब ६ जोड़े अलग-अलग तरह के लेकर आए थे और उन्हें इस pond मे डाल दिया था।मछली खरीदते समय इस बात का ध्यान रक्खा था की शार्क मछली को ना खरीदे क्यूंकि शार्क बाकी गोल्डेन,ब्लैक वगैरा को जल्दी मार देती है।मछलियों को खरीदने के साथ-साथ उनके लिए दाने वगैरा भी खरीदे। सुबह उठते ही पहला काम होता था बाहर जाकर pond मे मछलियों को देखना और उन्हें बाहर बुलाना ,उन्हें खाने के लिए दाने डालना और उनसे बात करना। इन मछलियों को लाई (मुरमुरा) खाना भी बहुत पसंद था।सुबह-सुबह इन्हे देख कर मन खुश हो जाता था।(बांयी फोटो मे मछलियाँ गप्पे मारती हुई और दाहिनी फोटो मे मुरमुरा या लाई खाने के लिए आई है। )
वैसे ये समझ जाता है की मछली पालना बहुत ही आसान होता है पर ऐसा भी नही है । इन सुन्दर और प्यारी मछलियों को भी देख-भाल की खूब जरुरत होती है। पानी साफ होना और दाने ज्यादा ना खा जाएं इस बात का ध्यान रखना होता था। क्यूंकि अगर ये दाने ज्यादा खा जाती है तो भी मर जाती है। दिल्ली मे जब हम लोग फिश पोंड मे मछलियाँ पालते थे तो अक्सर ऐसा ही होता था।
हालांकि ये थी सिर्फ़ बारह ही और एक बहुत ही छोटी सी रोहू भी थी।अब वो रोहू थी या नही पता नही पर सब उसे कहते रोहू थे। हर मछली का अपना अलग स्टाइल था। काली मछली बहुत ही लेट लतीफ टाइप की थी और ज्यादातर पानी मे नीचे ही रहना पसंद करती थी। और ओरंज और ब्लैक बहुत ही तेज थी। जैसे ही खाना डालते थे ये दोनों फटाफट आ जाती थी खाने के लिए। और जब तक काली वाली आती थी तब तक खाना ख़त्म हो चुका होता था और हमे दोबारा उनके लिए खाना डालना पड़ता था।एक दिन अचानक सुबह देखा तो काली मछली पानी मे ऊपर आ गई थी बाद मे पता चला की वो मर गई थी।और दो दिन के अंदर ही दोनों काली वाली मछलियाँ मर गई थी।
जब हम लोग अंडमान से गोवा आने लगे थे तो हमने अपनी इन मछलियों को अपनी एक दोस्त को दे दिया था।और इस फोटो मे वो उसके घर के aquarium मे है। अपने घर के pond मे तो ये मछलियाँ ज्यादा बड़ी नही लगती थी पर दोस्त के घर के pond मे काफ़ी बड़ी लग रही थी।
अगली पोस्ट मे इन प्यारी मछलियों का हम विडियो लगायेंगे।
Saturday, April 12, 2008
दुखी कैरी
कैरी जो हमारे बेटे को बिल्कुल अपने बराबर समझता है । उससे बिल्कुल बराबरी से खेलना ,फ़ुटबॉल के लिए झपटना और यहां तक की कार मे बैठने मे भी पूरी सीट पर कैरी अपना ही कब्जा चाहते है।
जब भी कोई कहीं जाने के लिए अटैची या बैग निकालता है तो कैरी समझ जाते है की कोई घर से बाहर जा रहा है । और कैरी सामान के आस-पास मंडराने लगते है। और एक दिन पहले से कैरी की आँखें एहसास हो गया था की बेटा कहीं जाने वाला है क्यूंकि जब परसों बेटा पैकिंग कर रहा था तो कैरी को एहसास हो गया था की वो बाहर जाने वाला है।
सुबह जब एअरपोर्ट जाने के लिए निकले तो कैरी ने एक बड़ी ही दुःख भरी नजर से बेटे को देखा । बेटे ने उसे बिस्कुट दिया तोआम तौर पर जब हम लोग दरवाजा लॉक करने लगते है तो कैरी दरवाजे से बाहर निकलने की कोशिश करता है पर कल वहीं बिस्कुट के पास बैठ गया था। और जब हम और पतिदेव एअरपोर्ट से लौट कर आए तो कैरी की आँखें बेटे को ढूंढ रही थी।
वाकई हम इंसान सोचते है की ये तो जानवर है इन्हे भला किसी के आने या जाने से क्या फर्क पड़ता है। पर ऐसा बिल्कुल नही है। इन्हे भी फर्क पड़ता है।
Tuesday, April 8, 2008
सुन्दरी की बिदाई----
सुन्दरी की बिदाई----
रात को सुन्दरी पर लेख लिखने के बाद सुबह पाँच बजे सोया ही था कि मुझे जगाकर बताया गया कि आम के पेड पर तोतो का एक झुण्ड आया है। कैमरा लेकर मै पहुँचा तो लगा जैसे दसो सुन्दरियाँ आम की शाखाओ पर विराजमान है। अचानक मन मे ख्याल आया कि इनसे सुन्दरी को मिलवाया जाये। सुन्दरी को उनके पास लाया गया। आशा के विपरीत जल्दी ही वे आपस मे घुल-मिल गये। सब ने कहा कि लगता है सुन्दरी को अपनाने वाले मिल गये। दिल पर पत्थर रखकर उसे आखिर विदा कर ही दिया। कई घंटो तक वह खुशी-खुशी पेड पर बैठी रही। हमने उसके पंख नही काटे थे और कमरे मे उसे उडने का अभ्यास कराते रहे थे। यही काम आया और कुछ घंटो पहले उसने ऐसी उडान भरी कि पलक झपकते ही नजरो से ओझल हो गयी। सब कुछ जैसे थम सा गया। केवल आँसू ही नही थम रहे-------
Monday, April 7, 2008
एक सुन्दरी मेरे जीवन मे (भाग-पाँच)
एक सुन्दरी मेरे जीवन मे (भाग-पाँच)
मनुष्यो का दर्पण से प्रेम तो जग जाहिर है पर पंछियो को भी यह भाता है यह मुझे सुन्दरी के आने के बाद पता चला। सुन्दरी अपने रुप को देखने दर्पण का प्रयोग नही करती –ऐसा हमे लगता है। उसे लगता है कि सामने कोई दूसरा पंछी है उसी की नस्ल का। यही कारण है कि शुरु शुरु मे पिंजरे के अन्दर दर्पण रखने पर उसने चोच से उसे मारना शुरु कर दिया। नाराज भी होती रही पर धीरे-धीरे उसे अन्दर वाला पंछी अच्छा लगने लगा। अब वह घंटो मंत्र-मुग्ध सी उसके सामने बैठी रहती है। खाना भी वही खाती है और सोती भी वही है। पहले कुछ घंटो के लिये उसे अकेला छोडने पर वह चिल्लाती थी पर अब इस नये साथी के साथ वह मजे से रह लेती है।
जैसा कि पहले बताया दर्पण के सामने सुन्दरी मंत्र-मुग्ध सी स्थिर खडी रहती है, न बोलती है न ही किसी और की सुध रहती है इसलिये दिन मे कुछ ही घंटे उसके सामने दर्पण रखा जाता है। सुन्दरी से प्रभावित बच्चे जब उसके लिये गिफ्ट लाने की बात कहते है तो मै उन्हे नये किस्म के दर्पण लाने की राय देता हूँ। सुन्दरी को खुश रखने के लिये घर के सदस्य तरह-तरह की सीटी बजाते है और आवाजे निकालते है। बहुत बार तो सुन्दरी कूद कर दर्पण के सामने आ जाती है इस आस मे कि शायद अन्दर वाला आवाज दे रहा है।
सुन्दरी के आने के बाद आस-पास तरह-तरह की मधुर आवाजे निकालने वाले पंछियो की संख्या बढ गयी है। वैसे हमारे बागीचे मे नाना प्रकार के पेड-पौधे लगे है और हम रसायनो का प्रयोग नही करते है इसलिये बडी संख्या मे चिडियो का बसेरा है। सुन्दरी की सुबह इन्ही आवाजो को सुनते होती है। मै रात भर जागता हूँ इसलिये रात के पंछियो से लेकर सुबह चार बजे आवाज करने वाले पंछियो को सुन पाता हूँ। इसके बाद सुन्दरी की ड्यूटी शुरु होती है। बहुत से तोते भी सुन्दरी की आवाज सुनकर आ जाते है। जंगल मे शिकारी पालतू पंछी की मदद से उनके साथियो को पकडते है।
कुछ वर्षो पहले मै रायगढ मे वानस्पतिक सर्वेक्षण कर रहा था। वहाँ लोगो ने डहूक नामक पंछी पिंजरे मे बन्द कर रखा था। वह सुन्दर नही था न ही उसकी आवाज मधुर थी। ‘फिर क्यो इसे पाला है?’ मैने पूछ ही लिया। उन्होने राज खोला कि इसकी विचित्र आवाज सुनकर इसके साथी आ जाते है और आसानी से पकड लिये जाते है। वे इस पंछी को खाते है। रोज इस तरह इसकी मदद से पंछी पकडे जाते है और खाये जाते है। बडा आश्चर्य लगता है कि कैसे इसके साथी और सजातीय रोज ऐसी बेवकूफी कर बैठते है? कभी तो कोई होशियार पैदा होगा इनके बीच।
चलिये विषय से थोडा भटक ही गये है तो आपको हिरण से जुडा किस्सा भी बताते है। बहुत से वनाँचलो मे हिरण को बचपन से पाल लिया जाता है फिर उसे रोज गुड खिलाया जाता है। बडे होने पर वापस उसे वन मे छोड दिया जाता है। वन मे उसे गुड की याद आती है। वह वापस आता है पर अकेले नही दो-तीन को साथ ले के। ये दो-तीन आते तो है पर वापस नही जा पाते है। पालतू हिरण को गुड मिलता है और फिर उसे वन मे छोड दिया जाता है उसी प्रक्रिया को दोहराने। जब बहुत कम मनुष्य़ थे और बहुत ज्यादा वन्य प्राणी तब तो यह सब बिना किसी पर्यावरणीय असंतुलन के चलता रहता था पर अब मनुष्य़ के यही प्राचीन तरीके उसके लिये अभिशाप बनते जा रहे है। इन वन्य प्राणियो को बचाने की मुहिम मे जुटे लोगो के लिये ऐसी जानकारियाँ महत्वपूर्ण हो सकती है। जंगलो मे जाने से ऐसे राज अक्सर पता चल जाते है। पर इन्हे कहाँ और कैसे बताये यह समझ नही आता। चलिये अब इस लेख के माध्यम से यह सम्भव हुआ।
सुन्दरी के साथियो को चिंतित नही होना चाहिये क्योकि हम उन्हे नही पकडने वाले। इस आस मे कि शायद उसके साथी भी दर्पण से प्रेम करते हो मैने कुछ दर्पण बागीचे मे रखे पर अभी तक तो कुछ रोचक देखने को नही मिला। सुन्दरी के लिये एक खुशखबरी है। एक शीश महल अर्थात दर्पण ही दर्पण से भरे एक विशेष पिंजरे के निर्माण की बात चल रही है। देखिये यह कब सम्भव हो पाता है।
[क्षमा करे ये पोस्ट दोबारा शामिल कर रहा हूँ। पहली पोस्ट मे सुधार करते-करते वह डिलिट हो गयी। उसमे दिनेश जी की एक टिप्पणी आयी थी वह भी विलोपित हो गयी। मै उसे डेशबोर्ड मे खोज रहा हूँ। आशा है दिनेश जी क्षमा करेंगे।
आप बताये कि डिलिट पोस्ट को क्या दोबारा प्राप्त किया जा सकता है? यदि हाँ तो कैसे?]
Thursday, April 3, 2008
एक सुन्दरी मेरे जीवन मे (भाग-4)
एक सुन्दरी मेरे जीवन मे (भाग-4)
पिंजरे मे जंग न लगे इसलिये इसे प्लास्टिक कोटेड बनाया गया। जब सुन्दरी को इसमे रखा गया तो पहले तो कोई दिक्कत नही हुयी पर बाद मे पिंजरे को ध्यान से देखने के पर पाया कि यह कोटिंग जगह-जगह से उखडी हुयी है। माथा ठनका। रात को उठकर देखा तो पता चला कि सुन्दरी ही उसे कुतर रही है। हमे डर यह था कि कही यह प्लास्टिक अन्दर तो नही जा रहा है। पिताजी ने तुरंत पिंजरा बदलने की बात की। वे बहुत ज्यादा सशंकित थे। सुन्दरी के व्यव्हार और खान-पान मे कुछ फर्क नही दिख रहा था। कुतरा हुआ प्लास्टिक छोटे-छोटे टुकडो के रुप मे नीचे पडा दिखता था। हम लगातार नजर जमाये रहे। कुछ दिनो मे यह स्पष्ट हो गया कि चोच की कसमसाहट को दूर करने या उसे पैना करने के लिये सुन्दरी यह सब करती रही। जबलपुर मे मामा जी के घर करन तोता है। वो दिनभर घर मे खुला घूमता है। जब उसे छोडा जाता है तो सारे जूते-चप्पलो को छुपा दिया जाता है। नही तो कुछ भी कतरे जाने से नही बचता। उन्होने जब इस बारे मे बताया तो सुन्दरी की इस आदत को हमने और अच्छे से जान लिया।
सुन्दरी को मच्छरो से बचाने के लिये गाँव के दर्जी से एक छोटी सी मच्छरदानी सिलवायी गयी। रात को इसे लगाकर खिडकी की ओर कपडा ढक दिया जाता है ताकि उसकी जानी दुश्मन बिल्ली रानी खिडकी पर आकर बैठे भी तो सुन्दरी को डरावने सपने न आये। कुछ ही दिन बीते कि सुन्दरी ने मच्छरदानी और कपडे मे भी बडे-बडे छेद कर दिये। अब जब भी उसे नीन्द नही आती है, इन छेदो से झाँकती रहती है और बिल्ली रानी को चिढाती रहती है। सर्दियो मे कम्बल का भी उसने यही हश्र किया। सब उसे प्यार करते है पर इस हरकत पर नाराज भी हो जाते है। दो बार के प्रयास के बाद अब वही फटी मच्छरदानी उपयोग हो रही है।
आल आउट मे उपस्थित एलीथ्रीन मच्छरो और आदमियो को किस मात्रा मे नुकसान पहुँचाता है यह तो वैज्ञानिक दस्तावेज बतलाते है पर सुन्दरी की प्रजाति के तोतो के पास कितनी देर तक इसे जलाना चाहिये यह जानकारी कही नही मिलती। कम देर तक जलाओ तो मच्छर नही भागते और ज्यादा देर होने पर चिंता होती रहती है। शुरु-शुरु मे सुन्दरी को मच्छर खाते देखा तो लगा कि अब ये शैतान उसके लिये समस्या नही बनेगे पर लगता है कि उसे मच्छर स्वादिष्ट नही लगे। इस प्रजाति के तोते कीडे-मकोडे तो खाते ही है। सुन्दरी का पूरा शरीर ढका होने के कारण मच्छरो से बचा रहता है। पर पंजे खुले होते है। उसी पर मच्छरो की नजर रहती है। रात को सोते समय दूर ही से चट-चट की आवाज सुनायी देती है। एकांतर क्रम मे वो अपने पंजो को हिलाती रहती है चाहे मच्छर हो या न हो। यह प्रक्रिया नीन्द मे भी जारी रहती है। बडी दया आती है। पर करे भी तो क्या? अपनी जडी-बूटी जलाने से वह शोर मचाती है। शायद धुँआ ज्यादा कडवा लगता है उसे।
इस बार मच्छर कुछ ज्यादा ही है। जब भी कोई मच्छर सुन्दरी की ओर आता है तो वो जोर से घुडकने जैसी आवाज निकालती है। शायद यह प्रभावी है क्योकि हमने इससे अक्सर मच्छरो को दूर जाते देखा है।
Wednesday, April 2, 2008
कैरी के मॉर्निंग वाक् के साथी
पहले सड़क के और जिस घर के सामने से निकलते थे वहीं से जोर-जोर से भौकने की आवाजें आने लगती थी। और अब तो ये आलम है की कैरी हर घर हर गली जहाँ उनके ये साथी रहते है वहां रुक कर अपने दोस्तों को हेलो करना नही भूलते है।क्या कहा यकीन नही आ रहा है। अरे ये देखिये कैरी गेट के सामने खड़े है और उनका साथी उन्हें सुबह-सुबह सारी ख़बर दे रहा है।
और वहां से आगे चलने पर ये मिलते है । ये बहुत ही ज्यादा शोर करता है। और पूरी सड़क पर अपना राज समझते है।
दाहिनी ओर वाली फोटो मे तीन doverman दिख रहे है। इनकी खासियत ये है की ये तीनो एक-दूसरे को सपोर्ट करते हुए भौंकते है। पहले इस जगह से और फ़िर गेट पर आकर भी भौंकते है। पर पिछले डेढ़ साल से कैरी को देखते है इसलिए अब सिर्फ़ फोर्मलिटी ही करते है भौंकने की।और बस हालचाल पूछ लेते है।
और ये कुछ मिक्स breed है boxer की । ये बहुत ही खूंखार टाइप है। इसका ये हाल है की ये घर वालों के कंट्रोल मे भी नही रहता है।
और ये छोटे-छोटे उस कहावत को दर्शाते है की सूप तो सूप चलनियों बोले। और मजा ये की जब कैरी चलते रहते थे तो ये भौंकते थे पर जैसे ही कैरी रुक कर मुड़ते की ये सारे के सारे भाग कर दूर चले जाते थे।
अब इस फोटो मे जो तीन दिख रहे है मॉर्निंग वाक के अंत मे इन्ही से कैरी की हेलो होती है। ये तीनो कैरी को देखते ही भौंकना शुरू कर देते है और हमारे कैरी महाशय बैठकर उन्हें देखते-सुनते है ।
और अब तो आलम ये है की कैरी सुबह-सुबह गाना गाकर हम लोगों को उठा देते है है walk के लिए। मजाल है की कोई सुबह सोता रह जाए। अब तो एक रूटीन बन गया है । हफ्ते के पाँच दिन तो हम लोग कैरी को अपने मोहल्ले मे ही walk कराते है पर शनिवार और रविवार को कैरी beach पर walk के लिए जाते है।जहाँ कैरी को बहुत मजा आता है।
Tuesday, April 1, 2008
मेरे घर आये मिट्ठू मियां
बडी ही विषम परिस्थिति बन गई थी.वैली की उग्रता चरम पर थी, वो लगातार भौंक कर और यहां से वहां कूद कूद कर आफ़त कर रही थी.तोते महाशय को कोई घबराहट नहीं थी.अचानक बोले,"मिट्ठू को खाना दो,सुनो,सुनो." मै अचरज में पड गई, न जाने किस के घर से छूट कर आया है, इसके घर-वाले कितने परेशान हो रहे होंगे? लेकिन अतिथी महोदय का सत्कार तो ज़रूरी था ना? इसलिये पहले वैली को बांधा,फ़िर रसोई से गुड निकाल कर लाई. जैसे ही मैने अपनी हथेली आगे की, श्रीमानजी बिना किसी तकल्लुफ़ के गुड कुतरने लगे.फ़िर बिस्किट की बारी आयी.ऊपर से पिन्जरा निकाल कर मिट्ठूजी का ग्रह प्रवेश करवाया. वो बडी शान से पिन्जरे में दाखिल हो कर चहल-कदमी करने लगे.अपनी सोसाइटी में रहने वाले घरों में पुछवाया किन्तु मिट्ठूजी के मालिक का कोई पता नहीं चल पाया. जिस दौरान मिट्ठूजी हमारे यहां आतिथ्य ग्रहण कर रहे थे,मुझे यकायक सुबह का सपना याद आ गया.शिर्डी के सांई बाबा का आशीर्वाद समझ कर मिट्ठूजी को हमारे घर के सदस्य के रूप में मान्यता मिल गई. अगली पोस्ट में मिट्ठूजी की खास अदाओं से आपका परिचय करवाऊंगी.